शिव की जटासे
गंगा पावन प्रवाह वसुंधरा पर लाकर
भगीरथ ने जो उपकार किया, वह अद्भुत है।
इस मंदाकिनी में प्रवाहित होता जल,
शीतल, स्वच्छ, निर्मल और आसुत है।
शंभु अपना काम सम्पन्न कर समाधि में चलें जाते हैं,
भगीरथ बस अपनी भूमिका तक नजर आते हैं।
इनके संयुक्त उपक्रम के रुप में हर समय
हम गंगा को ही देख पाते हैं।
इस देव नदी का स्मरण, दर्शन, आचमन और स्नान
सभी अलौकिकता के उजास हैं।
इस त्रिपथगा का सान्निध्य
स्वर्ग, शिव और भगीरथ तीनों का सम्मिलित आभास है।
इसकी तरंगें हॅंसता खेलता ध्यान है,
इसकी कलकल सूर्य और चन्द्र नाड़ी में चलता अनहद नाद है।
इसके दोनों तट शिव और शक्ति के प्रतीक हैं,
इसका पाट आसन के रूप में मिला अनुग्रह का प्रसाद है।
इसमें समाहित होते नदी और नाले, साधकों की ही तो जमात है।
इसके स्पर्श से बंटता प्रसाद, शिव-पार्वती के विवाह का भात है।
इसकी निश्रा में होता सत्संग, मुक्तिदायक पवित्र तीर्थाटन है।
इसके भूभाग से हुआ दृष्टिपात,मुक्त और रोमांचक भजन है।
इसके तट पर जीना और मरना दोनों मोक्षकारी है।
इस भागीरथी ने अपने आँचल में शरण दी, हम इसके आभारी हैं।
इसके दर्शनमात्र से जन्म जन्मांतर के आतुर हो जाते है चंगे।
हे जगज्जननी। महाशिवरात्रि पर साधुवाद स्वीकारो,
हर गंगे. हर गंगे।
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