सद्गुरुकृपा का सार- व. राव

मुझे लगता है कि
सद्गुरु कुम्हार हैं।
वे कड़े परिश्रम से साधकरुपी माटी को मथकर
स्नेहिल स्पर्श से सुंदरतम स्वरूप गढ लेते हैं।
उसे तपाते हैं और उपयोगी बनाकर
बिना किसी अपेक्षा के वापस रख देते हैं।
खुद निर्लेप हो्कर करते रहते
शिष्य के कर्मों के दीदार हैं।
गुरु सचमुच कुम्हार हैं।
गुरु साधक की कचावट को छील छीलकर
उसे सर्वोत्तम रूप में निखारते हैं।
यह उनका अनुपम उपहार है।
लगता है गुरु एक सधे हुए सु्थार हैं।
गुरु सुनार बनकर
साधकरूपी सोने को कुन्दन बनाते हैं।
साधक को सुदृढ़ करने के लिए वे
लुहार की तरह हथौड़े दनदनाते है।
वह शिष्य के लिए कभी माली, कभी बुनकर
तो कभी दर्जी, तो कभी नाई बन जाते हैं।
वे कुछ भी बनकर के
साधक को संवारने में आनंद पाते हैं।
दिल के कपाट खोलकर
आत्मीयता से उसमें बैठ जाते हैं।
वहीं से साधक के अंग-अंग को
कराते अमृत का पान हैं।
यही तो सद्गुरु द्वारा कराया गया
अंतर्स्नान है।
इस स्नान से साधक की शक्ति
शुचिर्भूत होकर शिवोन्मुखी हो जाती है।
माँ कुण्डलिनी अपना गंतव्य पा जाती हैं।
तब घटती है एक क्रान्ति
होता है एक अद्भुत चमत्कार।
चैतन्यता नस नस में दौड़ने लगती है
और खुल जाता है सहस्रार।
तब साधक को जो कुछ मिलता है,
वही तो सद्गुरुकृपा का सार।
हे सद्गुरु मुझे भी संवार
हे सद्गुरु मुझे भी तार,
हे सद्गुरु आप है अपरंपार।
—व.राव. चैतन्य दिवस पर रचना,
पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह जनवरी २०१३
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