मनुष्य मात्र में शक्ति का असीम भण्डार है। किन्तु ये शक्तियां अधिकतर सुषुप्तावस्था में होती हैं। मुझे लगता है कि हमारी सारी साधनाएं सुप्त और गुप्त शक्तियों को जगाने के उपक्रम ही हैं। ध्यान रहे, जैसे सुप्त शक्ति की कोई निष्पत्ति नहीं होती, वैसे ही जाग्रत होकर अनियंत्रित शक्ति की कोई सद्वृत्ति नहीं होती है। शक्ति को जगाए बिना मनुष्य चरम और परम से वंचित ही रहता है तो शक्ति का सदुपयोग किए बिना वह शक्ति का दास होकर स्व-पर का र्हास ही कर सकता है।
आवश्यकताएं दोनों ही हैं। जगाना भी जरूरी है तो नियंत्रण भी। जगाने के लिए स्वयं के प्रयोग कभी-कभी परिणामकारी हो सकते हैं, अपना मार्ग भी उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है किन्तु नियंत्रण की साधना को अनुभवों की पाल से ही बांधा जा सकता है। अत: अनुभवियों की संगति का चलन संभवत: इसी लक्ष्य के लिए बना है।
और यदि जागरण में भी अनुभव जुड़ जाए तो हमारी अधिकांश ऊर्जा संरक्षित होकर शिवभाव के लिए लग सकेगी। शक्ति संचय का पर्व एक बार फ़िर समुपस्थित है, उक्त दोनों आयामों पर गति सधे ऐसी शुभकामनाएं।………….वरदीचन्द राव.
पूर्वप्रसिद्धी-शिवप्रवाह ऑक्टोबर ०७.
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शक्ति संवर्धन की बात आते ही प्रथमत: शारीरिक शक्ति का ख्याल आता है। बात सही भी है क्योंकि माना गया है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। या पहला सुख निरोगी काया । कुछ लोगों का मत है कि तन की शक्ति का अपना महत्त्व है । किन्तु यह पर्व है मन की शक्ति के संचय का। मन की शक्ति से ही असली विजय प्राप्त होती है। व्यक्ति जितेन्द्रिय होता है। इससे भी अलग माना जाता है कि साधना की शक्ति का स्वरूप कुछ और ही है। साधना की शक्ति के जागरण के साथ ही कल्मषों का नाश तो होता ही है एवं जीवन के उद्देश्यों की सम्प्राप्ति भी सुलभ हो जाती है। साधक भिन्न-भिन्न मंतव्यों से अपना मार्ग तय करते हैं। शक्ति के आशय अनेक हैं, उनमें साम्यताएं भी हैं और अंतर भी।
एक गंभीर अर्थ और भी है सद्गुरु कृपा शक्ति का संचय। यों तो सद्गुरु सदैव, सर्वसमय कृपालु हैं हीं, किन्तु जीवन के उत्कर्ष के लिए जिस अनुग्रह और अनुकम्पा की आवश्यकता होती है, वह पात्रता पर, याचना पर ही मिलते हैं। नवरात्रि में सद्गुरु सन्निधि में आराधना से यह उपलब्धि सहज होती है। सद्गुरु कृपा में तन, मन, धन की एवं अन्य सभी शक्तियां समाहित होती हैं।..सम्पादक व. राव.
पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह सितम्बर 2010.
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