Tag Archives: Shree. Varadichand Rao- Editor Shivapravah
गुरुमंत्रं सदा जपेत् ।
हम हरिहर को पूजें, गणेश की वंदना करें या अपने ईष्ट भगवान की आराधना करें। शास्त्रों, विद्वानों व प्रवर्तकों ने सभी में एक ही तत्त्व कहा है। पूजा के अपने-अपने विधिविधान है, ढंग है, परम्पराएं है, मान्यताएं है पर इससे भिन्नता प्रमाणित नहीं होती। इन्हीं शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु व महेश है, वही साक्षात परब्रह्म है। इन दोनों बातों में कोई विरोधाभास नहीं है। जब हम सद्गुरु वंदन करते है तो वह सभी देवताऒं तक भी जाता है और जब हम देवार्चन करते है तो वह सद्गुरु तक भी पहुंचता है। बस अंतर यही है कि सद्गुरु प्रत्यक्ष है और देव अप्रत्यक्ष । देव सद्गुरु है और सद्गुरु देव, यही उनका अंतर्सम्बंध है। जो इस रहस्य को समझा वही साधक बन जाता है।….व, राव
पूर्वप्रसिद्धि- शिवप्रवाह सितम्बर 2011.
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शक्ति पर्व नवरात्र
शारदीय नवरात्र और चैत्र नवरात्र में शक्ति पूजा का विधान है। शारदीय नवरात्र का अपना महत्त्व है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री ये देवी के नौ रूप हैं इन नौ देवी रूपों का पूजन होने से नवरात्र कहा गया है। इन देवियों का लोककल्याणकारक रूप ही दुर्गा है। दुर्गा पूजा का अनुष्ठान नौ दिन तक विविध प्रकारों से सम्पूर्ण देश में धूमधाम व भक्तिपूर्वक होता है। ये दिन उपासना के लिए महत्त्वपूर्ण माने गए है। इन नौ दिनों तक अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रखने का विधान है। ऐसा माना जाता है कि दीपक या अग्नि के समक्ष किए गए जाप या तप का हजार गुना फ़ल होता है। देवी को लाल रंग प्रिय है अत: दीपक की लौ का रंग से साम्य होने से वह अपनी उपस्थिति दीपों के पास बनाए रखती है। अपनी परम्परा में भी शक्ति उपासना को अत्यंत महत्त्व दिया गया है। साधक सद्गुरुकृपा से अपनी शक्ति को जाग्रत करके अपनी ऊर्जा के मूल स्वरूप की पहचान कर लेता है। इस शक्ति को उर्ध्वगति द्वारा शिव से संयोग कराने का उपक्रम ही सिद्धि है। यह सिद्धि प्रत्येक साधक को उपलब्ध हो यही सद्गुरु प्रभु बा का मंतव्य है।
–सं. व. राव
पूर्वप्रसिद्धी- शिवप्रवाह सितम्बर 2010.
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मैंने शिव चलते देखा है ….व. राव.
परमहंस पूज्य प्रभु बा के सान्निध्य में इस श्रावण में निरंतर पूरे मास शिव-त्रिशूल, उदयपुर में पार्थेश्वर पूजा का विशिष्ट विधान चला। प्रतिदिन अलग-अलग यजमान बैठे । रक्षाबंधन के पवित्र दिवस पर बा द्वारा मुझे भी सपत्नीक पार्थिव पूजा का अवसर दिया गया । पूजा के दौरान मैंने पार्थिव लिंगों में सद्गुरु शिव का जो साकार दृश्य देखा वही शब्दबद्ध करके प्रस्तुत कविता के रूप में प्रस्तुत है ।
मैंने शिव चलते देखा है
पता नहीं था मुझे कि मेरी,
किस्मत में ऐसी रेखा है ।
मैंने शिव चलते देखा है ।
मैंने शिव चलते देखा है ॥
साधक पर जब-जब भी कोई,
संकट की बेला आई तो,
करुणा से परिपूरित होकर,
कण- कण करके इस शंभू को,
इन आँखों गलते देखा है ।
मैंने शिव चलते देखा है ॥
चाहे किसी ने अपना माना,
भले किसी ने मारा ताना,
पर निर्लिप्त रहा जीवनभर,
इस विषपायी नीलकण्ठ को,
परहित में जलते देखा है ।
मैंने शिव चलते देखा है ॥
एक बार तो यम भी आए,
उलटे पाँव उसे लौटाए,
ले त्रिशूल खडा हो जाए,
इस शंकर के ताण्डव भय से,
मृत्यु को टलते देखा है ।
मैंने शिव चलते देखा है ॥
कितने हीन-दीन को तारा,
कितनों को मिल गया सहारा,
परम्परा में जो भी आया,
इस कैलासी की गोदी में,
खुशी-खुशी पलते देखा है ।
मैंने शिव चलते देखा है ॥
………वरदीचन्द राव
पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह- अगस्त 2009
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अखंड स्नेह स्रोतस्विनी को नमन…श्री. वरदीचन्द राव
अनवरत झरता वात्सल्य
स्नेहसिक्त रश्मियों से
आलोकित प्रकाशपुंज ।
राजयोग की कीर्तिस्तंभ
साधना के प्रवाह से अभिसंचित
सरस-सधन-संघनित अध्यात्मकुंज ।
अंतर्ज्योति को जाग्रत करती
संचेतना का सामुद्रिक -ज्वार ।
संसर्गियों को भीतर तक आर्द्र करती
सत्संग की सुरसरि -धार ।
आभा, प्रभा और शोभा का सिंधु,
त्रितापों का शमन करती मलयपवन ।
संकल्प – सरोवर की निर्मल लहर
शक्तिपात का दैवी आचमन ।
जीवन को समिधासम कर
परकल्याण में रत तेजस्विनी प्रभु बा ।
परम्परा में आपने अपनी क्षमता से
एक नूतन इतिहास रचा।
इतिहास को नमन, अध्यात्म को नमन,
अपनत्व को नमन, सतत्व को नमन,
साधना को नमन, आराधना को नमन,
लब्धि को नमन, उपलब्धि को नमन
शक्ति के प्रभंजन को नमन
भक्ति के स्पंदन को नमन
नमन हर क्षण को, नमन कण कण को
नमन तुम्हारी स्मिता को।
नमन तुम्हारे में रमे परमपिता को ।
जो देता है हमें दिशाज्ञान।
कराता है आत्मानुसंधान ।
यही खोज हमें आत्मा से
परमात्मा में रूपांतरित कर देगी ।
नाम जप व योग साधना तभी तो सधेगी ।
सधा हुआ जीवन,
जीवन की साध बन जाए ।
आस्था घनीभूत होकर,
तात्त्विक सांद्रता बरसाए ।
इसलिए इतनी कृपा करना प्रभु,
बा को दीर्घायु करना ।
हँसता, गाता बहरता रहे
यह आध्यात्मिक झरना।
बा के जन्मोत्सव पर येउर में 25 मई 2008 को सभी साधकों की भावना को समाहित कर व. राव द्वारा पठित आस्था काव्य.
पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह- जून 2008.
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जानने की बात
जानने की बात
…… श्री. वरदीचन्द राव, संपादक शिवप्रवाह
योगियों के अनुसार यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये राजयोग के विभिन्न सोपान हैं । यम का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इस यम से चित्तशुद्धि होती है । शरीर, मन और वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें क्लेश न देना यह अहिंसा कहलाती है । यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं। चोरी से या बलपूर्वक दूसरे की चीज को न लेने का नाम ही है अस्तेय । तन – मन और वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रह्मचर्य है । अत्यन्त कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं । नियम अर्थात नियमित अभ्यास और व्रत का परिपालन । तप, स्वाध्याय, संतोष, शौच और ईश्वरप्रणिधान इन्हें नियम कहते हैं। आसन के बारे में यही समझ लेना चाहिए कि वक्ष:स्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वच्छन्द रीति से रखना ही आसन है । प्राणायाम शब्द दो शब्दों के मेल से बना है । प्राण का अर्थ है, अपने शरीर के भीतर रहने वाली जीवन शक्ति और आयाम का अर्थ है, उसका संयम । प्राणायाम तीन अंशो में विभक्त है – रेचक, पूरक और कुंभक। अनुभवशक्तियुक्त इन्द्रियों लगातार बहिर्मुखी होकर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं । उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं । अपनी ओर खींचना या आहरण करना – यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है ।
हृत्कमल में या सिर के ठीक मध्यदेश में या शरीर के अन्य किसी स्थान में मन को धारण करने का नाम है धारणा । मन को एक स्थान में संलग्न करके, फ़िर उस एकमात्र स्थान को अवलम्बनस्वरूप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृत्तिप्रवाह उठाये जाते हैं, दूसरे प्रकार के वृत्तिप्रवाह क्रमश: प्रबल आकार धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृत्तिप्रवाह क्रम होते होते अन्त में बिल्कुल चले जाते हैं, फ़िर बाद में उन प्रथमोक्त वृत्तियों का भी नाश हो जाता है और केवल एक वृत्ति वर्तमान रह जाती है । इसे ध्यान कहते हैं और जब इस अवलम्बन की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती , सम्पूर्ण मन जब एक तरंग के रूप में परिणत हो जाता है, तब मन की उस एकरूपता का नाम है समाधि ।
प.पू. राजयोगी प्रभु ’बा’ को ऐसी ही समाधि लगने के कारण ही परमहंस का पद प्राप्त हुआ है । वह योगाग्नि मनुष्य के पापपिंजर को दग्ध कर देती है । तब तत्त्वशुद्धि होती है और साक्षात निर्वाण की प्राप्ति होती है । ’बा’ का मार्ग भी ध्यान व योग का मार्ग है जिसमें चलते हुए योगी स्वयं को तथा सारे जगत को भगवद्स्वरूप में देखता है । ……. वरदीचन्द राव.
पूर्वप्रसिद्धी – शिवप्रवाह फेब्रुवारी २००८.
अष्टांगयोग – योगसूत्र
योग के ८ अंग – यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोSष्टावङ्गानि॥१॥
यम- अहिंसात्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा : ॥२॥
नियम- शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा : ॥३॥
आसन- स्थिरसुखमासनम् ॥४॥
प्राणायम- तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद : प्राणायाम:: ॥५॥
प्रत्याहार- स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार: ॥६॥
धारणा- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥७॥
ध्यान- तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥८॥
समाधि- तद एवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यम् इव समाधि: ॥९॥
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